Friday, May 30, 2008

््् दो बच्चे ्््

््् दो बच्चे ्््
दो बच्चे, भाई-बहन
दो बच्चे खेल रहे हैं
ना घर है, ना कमरा
खुला आसमान के नीचे
आग की तरह धूप में
सुबह से शाम तक
बच्चे रहते हैं, वहां पर
रेत में मिट्टी में खेलते हैं
गरीब मजदूर
के बच्चे, मां बाप
काम कर रहे हैं
बच्चे मां बाप को देख रहे हैं
कि मां-बाप जल्दी से
हमें घर ले चलो
अब तो शाम हो गई है
््््््््््््््््

2 comments:

Raj said...

बिस्सा जी
सादर नमस्कार!
कभी मैं आपका 'किरण' नाम से दोस्त रहा हूं औरकुट पर, मेरे ब्लाग "दिलों को जीतने का शौक"
पर मूल्यवान टिप्पणी दीजियेगा।
www.priyraj.blogspot.com

**ना हम ना वो इजहार नहीं करते**

मिला वो भी नहीं करते, मिला हम भी नहीं करते,
वफ़ा वो भी नहीं करते, वफ़ाहम भी नहीं करते।

उन्हें रुसवाई का दुख और हमें तन्हाई का डर,
गिला वो भी नहीं करते, शिकवा हम भी नहीं करते।

अगर किसी मोड पर टकराव हो जाता है अक्सर।
रुका वो भी नहीं करते, ठहरा हम बही भी नहीं करते।

जब भी देखते हैं उन्हें, सोचते हैं कुछ कहें उनसे।
सुना वो भी नहीं करते, कहा हम भी नहीं करते।

लेकिन यह भी सच है कि मोहब्बत उन्हें भी है।
इजहार वो भी नहीं करते, इशारा हम भी नहीं करते।

सतीश पंचम said...

ना घर है, ना कमरा
खुला आसमान के नीचे....
.............
...........
बच्चे मां बाप को देख रहे हैं
कि मां-बाप जल्दी से
हमें घर ले चलो
अब तो शाम हो गई है
- घर न होने पर भी आशान्वित मन...सुंदर रचना।